रामकृष्ण परमहंस को कुछ बुरा नहीं दिखता था तो वह भला करने कैसे जाते। उनका जीवन तो ईश्वर भक्ति में ही बीता। उनको सबमें भगवान नज़र आते थे। यहाँ तक कि जानवरों में भी। माता का भोग उन्होंने बिल्ली को खिला दिया क्योंकि उनको बिल्ली में देवी माँ दिखाई दी। अब ऐसे व्यक्ति से समाज निर्माण जैसे कार्य की अपेक्षा तो नहीं करनी चाहिए रही बात स्वामी विवेकानंद की तो उन्होंने कहा कि हर कोई अपने कर्मों का फल भोग रहा है। वेदांती होते हुए भी वह भारत समाज की बातें करते थे। फिर उन्होंने समाज निर्माण में हाथ क्यो नहीं बंटाया, यह मेरी समझ के परे है। वे भारत को विश्व गुरु के पद पर देखना चाहते थे। उनका मानना था कि एक भारत ही दुनिया में सद्भावना फैला सकता है। दूसरे कार्यों से अपने को दूर रखते थे। विधवा पुनर्विवाह पर उनका कहना था कि कोई किसी की सहायता नहीं कर सकता। वह काम तो ईश्वर का है। यहाँ थोडा अचरज सा होता है। क्योंकि ज़िन्दगी भर उन्होंने अद्वैत का पाठ पठाया। फिर उनके हिसाब से तो हर कोई ईश्वर है। फिर क्यों न ले कोई जिम्मेदारी समाज निर्माण की? यह बात समझ नहीं आयी। बस इतना है कि उनके लिए यह सब मायने नही
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